– बुन्देलखण्ड का साहित्य, कला और संस्कृति विषयक दो दिवसीय कार्यशाला का समापन

झांसी। पांच नदियों वाले पंजाब के लोगों ने पंजाबी संस्कृति को दुनिया भर में फैलाने में सफ़लता पाई है तो सात नदियों और अपार खनिज सम्पदा से भरपूर बुन्देलखण्ड की संस्कृति पीछे क्यों रह गई है, इस पर हमें विचार करने की आवश्यकता है। चरखारी में आज से चार सौ साल पहले जहां आगा हश्र कश्मीरी के नाटकों का मंचन किया जाता था, वहां आज भूसाघर है, हमें इस स्थिति से उबरना होगा। बुन्देलखण्ड के साहित्यकारों, कलाकारों और संस्कृतिकर्मियों की यह जिम्मेदारी है कि वे सब मिलकर एकता कपूर जैसे लोगों द्वारा फैलाई जा रही अपसंस्कृति को सिनेमा, पेंटिंग, नृत्य आदि से रोकें और यहां की संस्कृति को दुनिया भर में ले जाने का काम करें। ये उद्गार प्रख्यात फिल्मकार और संस्कृति कर्मी राजा बुंदेला ने बुन्देलखण्ड विश्वविद्यालय के भारतीय भाषा, कला एवं संस्कृति प्रकोष्ठ, हिन्दी विभाग और बुन्देलखण्ड साहित्य शोध समिति द्वारा आयोजित दो दिवसीय ऑनलाइन कार्यशाला के समापन समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में बोलते हुए व्यक्त किए। उन्होंने  कहा कि हमें अपने बक्सवाहा के जंगलों और बजरी, मिट्टी, मुरम के निर्दयतापूर्ण दोहन को भी रोकना होगा वरना अगले दस साल में हम तबाह और दरिद्र हो जाएंगे।
इससे पूर्व कार्यक्रम की शुरूआत करते हुए सागर के ओम प्रकाश चौबे ने कहा कि बुन्देलखण्ड की लोक संस्कृति में यदि शौर्य, स्वाभिमान, त्याग और उत्सर्ग की भावना है तो गीतात्मक सादगी, औदार्य और करुणा की भावना भी मिश्रित है। एक ओर तलवार तो दूसरी ओर पायल की झंकार का अद्भुत समागम बुन्देली संस्कृति की विशेषता है। राष्ट्रप्रेम, वचनबद्धता और स्वामिभक्ति बुन्देली संस्कृति की अन्य प्रमुख विशेषताएं हैं।
इन्दौर के नर्मदा प्रसाद उपाध्याय ने बुन्देलखण्ड की चित्रकला के विषय में चर्चा करते हुए कहा कि बुन्देलखण्ड की दृश्य विरासत की आज विश्व भर में ख्याति है तथा इस पर विस्तार से चर्चा हो रही है। बुन्देलखण्ड की चित्रांकन परम्परा पर कार्ल्टन विश्वविद्यालय कनाडा में कार्य हुआ है। बुन्देलखण्ड के साहित्य, लोकसाहित्य तथा नृत्य आदि की परम्पराओं पर खूब काम हो रहा है, लेकिन इस दृश्य विरासत पर अभी विस्तार से यहां के मनीषियों और शोधार्थियों द्वारा और कार्य किए जाने की ज़रूरत है।
इतिहासकार डॉ चित्रगुप्त श्रीवास्तव ने बताया कि बुन्देली लोक साहित्य में स्वतंत्रता आंदोलन की महत्वपूर्ण घटनाओं का समावेश है। यहां के गांवों के चौपालों पर लोक गायन के सुर आज भी आजादी की लड़ाई को बयान करते हैं। रानी लक्ष्मीबाई के शौर्य से लेकर गांधी जी के त्याग को यहां के लोकगीतों में स्थान मिला है।
गाज़ियाबाद की डॉ ऋतु दुबे ने बुन्देलखण्ड की पत्रकारिता के वर्तमान परिदृश्य पर बात करते हुए कहा कि पत्रकारिता के क्षेत्र में ग्लोबल विलेज की अवधारणा बदल चुकी है। आज स्थानीयकरण का युग है। क्षेत्रीय पत्रकारिता सूचना क्रांति की ही परिणिति है। बुन्देलखण्ड के विकास के लिए पत्रकारिता में ’अपना माध्यम अपनी आवाज’ को समझना होगा। बुन्देली में विभिन्न इलाकों में अलग अलग शब्दों का चलन है, परंतु संदर्भ के आधार पर अर्थ समझना कठिन नहीं है। आज के समय में प्रिंट और ऑनलाइन मीडिया में बुन्देली के शब्दों का प्रचुर मात्रा में उपयोग हो रहा है भले ही प्रिंट में कई शब्दों के लिए पर्याप्त मात्राएं व शब्द चलन में नहीं हैं फिर भी बुन्देली शब्दों का प्रचुर प्रयोग बदलते बुन्देलखण्ड की एक बानगी है।
सतना की वंदना अवस्थी दुबे ने उनके द्वारा बुन्देलखण्ड के लोक देवता हरदौल पर लिखे जा रहे उपन्यास की चर्चा करते हुए कहा कि ऐतिहासिक उपन्यास की पहली शर्त होती है उसकी ऐतिहासिकता को ज़िंदा रखना। तिथियों और सर्वमान्य घटनाओं के साथ छेड़छाड़ करने के स्थान पर उन सूक्ष्म तथ्यों को खोजना, जो कहीं लिखे नहीं गए, बल्कि लिखे जाने के इंतज़ार में हैं। तो मैंने भी हरदौल से जुड़े उन तथ्यों को विस्तार देने का प्रयास किया है जो अब तक लोगों के सामने नहीं आये। रानी चम्पावती को दोषमुक्त करना भी इसी प्रक्रिया का हिस्सा है।
लखनऊ के महेन्द्र भीष्म ने बुन्देलखण्ड के आल्हा ऊदल, वीरांगना महारानी लक्ष्मीबाई, चंद्रशेखर आजाद आदि महापुरुषों के शौर्य को स्मरण किया और आज़ाद जी की जयंती पर भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए उनके संस्मरणों को साझा किया। कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए अधिष्ठाता छात्र कल्याण प्रो सुनील कुमार काबिया ने बुन्देलखण्ड की लोक भाषा, संस्कृति और कलाओं की समृद्ध परम्परा की चर्चा करते हुए कहा कि ऐसे आयोजन बुन्देलखण्ड के महनीय वैभव को विश्व पटल पर स्थापित करने में सहायक होंगे। कार्यक्रम का संचालन डॉ अनुपम व्यास ने किया और कार्यक्रम संयोजक डॉ पुनीत बिसारिया ने सभी के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित की। इस कार्यशाला में दोनों दिन सात सौ से अधिक देश विदेश के शिक्षकों, शोधार्थियों, बुन्देलखण्ड रसिकों और आम लोगों ने प्रतिभाग किया, जिसमें ऑस्ट्रेलिया से लेकर अमेरिका तक, कश्मीर से कन्याकुमारी तक और अटक से कटक तक के प्रतिभागी शामिल थे।