बुंदेलखंड में ” कुन घुसूं पूनै ” पर स्त्रियों को सम्मान देने की अनूठी परंपरा

झांसी। बुंदेलखण्ड में आषाढ़ पूर्णिमा को घर की कुल बधुओं को पूजने की परंपरा है। इस दिन को एक ओर जहां गुरू पूर्णिमा के रूप में पूरे देश में मनाया जाता है तो बुंदेलखण्ड की लोक संस्कृति में गुरू पूजा के साथ कुल बधुओं को भी पूजने और सम्मानित करने की विधान है। इतिहासकार डा चित्रगुप्त बताते हैं कि बुंदेली भाषा में इसे ” कुन घुसूं पूनै ” कहा जाता है। इस दिन परिवार की सबसे वरिष्ठ महिला या सास स्नानादि से निवृत होकर दीवार पर रज और खङिया से पट बनाती है। यह पट पुराने घरों में बने आलों में भी बनता था। लेकिन रसोई घर या पूजा घरों में बना दिये जाते हैं। पट में पुतरियां बनायी जाती हैं, जिस घर में जितनी बहुऐं होतीं है, उतनी ही पुतरियां बनती हैं। फिर गाय के गोबर से लीप कर चौक पूरा जाता है। घर की बहूऐं भी स्नानादि कर नये परिधान एवं आभूषण धारण कर पूजा स्थल पर बैठ जातीं हैं। पूजा में विविध पकवान भी तैयार कर प्रसाद लगाया जाता है। प्रसाद में गुढ और घी के बुंदेली पकवान बनाये जाते हैं। पूजा में कथा कहने के बाद सास अपनी बहुओं की टीका करती है और आरती उतारती है। और घर की सुख समृद्धि के लिए सभी मिलकर प्रार्थना करते हैं। इतिहासकार डा चित्रगुप्त बताते हैं कि ये परंपरा विशुद्ध बुंदेली संस्कृति का भाग है । बुंदेलखण्ड में प्राचीन काल से ही स्त्रियों ने पुरूषों के साथ कंधे से क॔धा मिलाकर घर -गृहस्थी का संचालन करती आयी है। खेत- खलिहानों अपने पति के साथ मेहनत कर पसीना बहाते आज भी महिलाओं को देखा जा सकता है। इसीलिए स्त्रियों को लक्ष्मी का रूप यहां माना जाता है। बुंदेली संस्कृति में स्त्रियों को सम्मान देने की यह परंपरा यहां के घरों में सुख-शांति और समृद्धि लाती है।