– उदयपुर में झांसी के इतिहासकार डॉ चित्रगुप्त ने झांसी के उत्थान में मारवाड़ियों का अहम योगदान बताया

झांसी। नगर के इतिहासकार डाॅ चित्रगुप्त ने राजस्थान के उदयपुर में इतिहास पर आयोजित राष्ट्रीय शोध संगोष्ठी में बुंदेलखण्ड व राजस्थान के आर्थिक और सांस्कृतिक संबंधों पर शोध पत्र पढ़ा। डाॅ चित्रगुप्त ने अपने शोध पत्र में बताया कि मध्यकालीन बुंदेलखण्ड में 16 वीं सदी से 19 वीं सदी तक बङी संख्या में मारवाङी व्यापारी झांसी और आसपास के क्षेत्र व्यापार के उद्देश्य से आये और यहीं बस गये। इन मारवाङी व्यापारियों का यहां के व्यापार और वाणिज्य में बहुत बङा योगदान था। झांसी किले की स्थापना के पूर्व ही झांसी प्रमुख व्यापारिक मार्ग था । 16-17 वीं सदी में झांसी से एक व्यापारिक मार्ग ग्वालियर होता हुआ करौली, जयपुर, सांभर, मेङता होता हुआ जोधपुर पहुंचता था। उन दिनों बंजारों के काफिले राजस्थान के सांभर से बैलगाङी और उंटों पर टनों नमक लादकर झांसी क्षेत्र में लेकर पहुंचते थे । उन दिनों झांसी पीतल के बरतनों के लिए प्रसिद्ध था। झांसी से मलमल कपङा, कपास, तांबे-कांसे के बरतन, अनाज, दालें, तिलहन , घी, गुङ मारवाङ भेजा जाता था। झांसी के चिरगांव के पास रामपुरा में बहुत बङी हाट लगती थी, ये बंजारे उस हाट में पहुंचते थे। झांसी के माणिक चौक को भी उन्नत करने में मारवाङी व्यापारियों का ही योगदान था। 1857 की क्रांति के समय यहां अंग्रेजों ने लूट खसोट मचायी और बाजार बहुत प्रभावित हुआ। अनेक मारवाङी परिवार अपनी हवेलियां छोङकर अन्य नगरों में पहुंच गये। लेकिन अधिकांश परिवार जिनमें पालीवाल, मित्तल, अग्रवाल, विश्नोई, माहेश्वरी, पोद्दार, छीपा, गंधी आज भी झांसी और आसपास के क्षेत्रों में व्यापार में सक्रिय हैं। इन मारवाङी व्यापारियों और बंजारों ने लोक कल्यार्थ बुंदेलखण्ड में मंदिर, कुऐ, तालाब और धर्मशालायें भी बनवाये। डाॅ चित्रगुप्त बताते हैं कि मारवाङी संस्कृति के प्रमुख तत्व भाषा, संगीत, नृत्य, लोकदेवता, त्योहार आदि भी बुंदेली संस्कृति में सम्मिश्रित हो गये। बीजासैन देवी की पूजा, गणगौर पूजा, कारस देव पूजा, बाबू की दोज आदि अनेक लोक त्योहार बुंदेलखण्ड और मारवाङ में समान रूप से लोक प्रचलित हैं। झांसी की बोलचाल की भाषा में भी कई शब्द मारवाङी भाषा से प्रेरित हैं। उक्त आयोजन राजस्थान विद्यापीठ विश्वविद्यालय उदयपुर में 3-4 सितंबर में आयोजित किया गया।