झांसी। बुंदेलखण्ड व्याख्यान माला -3 के अंतर्गत ” बुदेली लोक संस्कृति में श्रीकृष्ण ” विषय पर आनलाईन संगोष्ठी आयोजित की गयी। आनलाईन संगोष्ठी में मुख्य वक्ता के रूप में इतिहासकार डॉ चित्रगुप्त ने बताया कि बुंदेलखण्ड की लोक संस्कृति में श्रीकृष्ण भगवान रचे-बसे हैं। यहां के प्रमुख त्यौहार से लेकर लोकरंजन के विभिन्न उत्सव भी श्रीकृष्ण की भक्ति को संजोये हुए हैं। दीपावली पर गौ पूजा और गोधन पूजा को भगवान श्रीकृष्ण ने प्रकृति पूजा के रूप में ही प्रचलित करवाया। होली में फाग गीत भी राधा-कृष्ण को समर्पित होते हैं। जन्माष्टमी के दौरान बुंदेलखण्ड के विभिन्न मंदिरों में उत्सव के साथ दधि मटकी का कार्यक्रम गांव-शहर में आयोजित होता है। यहां के टेसू, सुआटा आदि खेल भी नरकासुर की कथा से प्रेरित हैं। जिसका वध श्रीकृष्ण ने किया था। बैकुंठ एकादशी, देवशयनी और देवोत्थान एकादशी जैसे पर्वों पर भगवान विष्णु के रूप में श्रीकृष्ण को ही पूजा जाता है। बुंदेलखण्ड में चैत माह में पजन की पूनें को भी श्रीकृष्ण की पूजा ही माना जाता है। जिसमें पांच मिट्टी के घङों को रंगों से अलंकृत कर रखा जाता है, जिसमें लड्डु रखकर वितरित किये जाते हैं, जिंन्हें पजन के लड्डू भी कहा जाता है। कार्तिक माह में भगवान कृष्ण की उपासना के लिए बुंदेलखण्ड की महिलाएं ब्रम्ह मुहूर्त में श्रीकृष्ण के भजन गाती हुई नदी और जल स्रोतों पर स्नान के लिऐ पहुंचतीं है। यह परंपरा आज भी प्रचलित है।यहां के नृत्यों में मौनियां नृत्य, वसुदेवा नृत्य आदि भी भगवान श्रीकृष्ण को ही समर्पित हैं। यहां की चितेरी कला में कन्हैया जू कौ पट प्रमुख रूप से बनाया जाता है। डाॅ चित्रगुप्त ने बताया कि श्रीकृष्ण हजारों शताब्दी से बुंदेली संस्कृति में ब्रज की संस्कृति की तरह है ही रचे बसे हैं। यहां के लोकभाव-लोकरस उनकी भक्ति से ही प्रेरित हैं। संगोष्ठी में बुंदेली वीर मंच के संयोजक डाॅ अंजनी कुमार श्रीवास्तव ने आभार व्यक्त किया। इस दौरान संतोष गुप्ता, रामेश्वर गिरि, मृदुल पटेल, डा निधि तिवारी का सहयोग रहा।