झांसी। वीरांगना महरानी लक्ष्मीबाई न केवल एक क्रान्तिचेता व्यक्तित्व थीं अपितु वे पूरे भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन की प्रमुख प्रेरक व्यक्तित्व भी थीं। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में रानी ने जिस स्वाधीनता का बिगुल फूँका था वह बाद के काल में क्रान्तिकारियों की चेतना को गहराई से उद्धेलित करती है। ये विचार आमंत्रित अतिथियों ने वीरांगना महारानी लक्ष्मीबाई और स्वाधीन चेतना विषय पर बुन्देलखण्ड विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी के उदघाटन समारोह में व्यक्त किए।
हिन्दुस्तानी एकेडमी, प्रयागराज और हिन्दी विभाग, बुन्देलखंड विश्वविद्यालय, झाँसी के संयुक्त तत्त्वावधान में 01से 03 मार्च, 2021को आयोजित “वीरांगना महरानी लक्ष्मीबाई और स्वाधीन चेतना” विषयक तीन दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आज पहला दिन था। इस संगोष्ठी में दूर-दूर से पधारे विद्वतजनों ने झाँसी की रानी और भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन पर पड़े उनके प्रभाव पर अपने विचार प्रकट किये।
मुख्य अतिथि और हिन्दुस्तानी एकेडमी, प्रयागराज के अध्यक्ष प्रो उदय प्रताप सिंह जी ने रानी और उससे जुड़ी इतिहास दृष्टि पर प्रकाश डालते हुए कहा कि हमारा इतिहास लोक के समर्थन का इतिहास है। अत: पत्रीय अभिलेखों के साथ-साथ लोक प्रचलित प्रसंगों से भी इतिहास को समझना चाहिये । कार्यक्रम के उद्घाटन सत्र में कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे बुन्देलखंड विश्वविद्यालय, के कुलपति प्रो जे वी वैशम्पायन जी ने अपने अध्यक्षीय व्याख्यान में कहा कि महरानी अपनी प्रकृति में स्वाधीनताप्रिय व्यक्तित्व थीं। स्वतंत्रता के भाव उनमें कूट-कूट कर भरे हुए थे। रानी का मन अंग्रेजी सत्ता को स्वीकार करने को तत्पर नहीं था। तत्कालीन परिस्थतियों में डलहौजी की हड़प नीति ने रानी जैसे स्वाधीनता प्रेमियों के मन में क्रान्ति ज्वाला भड़काने के लिये आग में घी डालने जैसा था ।
बीज वक्तव्य में सुप्रसिद्ध चिंतक और दिल्ली विश्वविधालय के प्रोफ़ेसर अवनिजेश अवस्थी ने 1857 की क्रान्ति और उसके प्रभाव पर चर्चा करते हुए कहा कि प्रथम स्वतंत्रता संग्राम असफल नहीं था बल्कि यह क्रान्ति एक शुरुआत थी, जिसने जन-जन में स्वाधीनता की प्राप्ति हेतु प्रेरक का कार्य किया। कार्यक्रम के द्वितीय सत्र की अध्यक्षता कर रहीं डॉ गायत्री सिंह ने महारानी लक्ष्मीबाई की स्वाधीन चेतना पर विचार प्रकट किये। उन्होने वर्तमान में महरानी के शैक्षिक और सहित्यिक उपेक्षा पर चिंता प्रकट की। पर्यटन अधिकारी डॉ चित्रगुप्त जी ने महरानी लक्ष्मीबाई पर लिखे गये एकांगी इतिहास पर चिंता व्यक्त की। उन्होने अपने अनेक प्रमाणों के माध्यम से रानी से सम्बन्धित इतिहास के अनछुए पहलुओं पर अपने विचार रखे। इस सत्र में लोक सहित्य के मर्मज्ञ विद्वान पन्नालाल असर, रामस्वरूप ढेंगुला डॉक्टर नीरज सिंह ने भी स्वाधीनता आन्दोलन के सन्दर्भ में महरानी लक्ष्मीबाई के योगदान पर प्रकाश डाला। उदघाटन सत्र का संचालन डॉ अचला पाण्डेय ने किया, स्वागत उद्बोधन डॉ पुनीत बिसारिया ने दिया और डॉ मुन्ना तिवारी ने जताया।
द्वितीय सत्र की अध्यक्षता डॉ गायत्री सिंह ने की जिसमें इतिहासकार डॉ चित्रगुप्त, आर एस ढेंगुला, पन्ना लाल असर और धर्मेन्द्र यादव ने अपने विचार व्यक्त किए। सत्र का संचालन नवीन चंद पटेल ने किया और श्रीहरि त्रिपाठी ने सभी के प्रति आभार व्यक्त किया।
शाम को आयोजित सांस्कृतिक कार्यक्रम की अध्यक्षता हिंदुस्तानी एकेडमी के अध्यक्ष डॉ उदय प्रताप सिंह ने की, मुख्य अतिथि कानपुर प्रांत के सह कार्यवाह अनिल जी श्रीवास्तव थे। कार्यक्रम में विनोद मिश्र सुरमणि ने दतिया का लोकगीत लेद, राधिका प्रजापति ने ढीमरयाई नृत्य, महोबा के रसरंग ग्रुप ने आल्हा, विश्वविधालय के विद्यार्थियो द्वारा प्रस्तुत रानी लक्ष्मीबाई नाटिका तथा लोक गीत प्रस्तुत किए गए।इस अवसर पर प्रो सुनील काबिया, डॉ पुनीत बिसारिया, डॉ मुन्ना तिवारी, श्रीहरि त्रिपाठी, नवीन चंद पटेल, डॉ अतुल गोयल डॉ श्वेता पाण्डेय, डॉ विनम्र सेन सिंह, उमेश कुमार, डॉ अमरेंद्र त्रिपाठी, डॉ मुहम्मद नईम, डॉ चित्रगुप्त, डॉ सुजीत सिंह सहित शोधार्थी, शिक्षक एवं विद्यार्थी उपस्थित थे।
यह जानकारी हिन्दी विभाग के अध्यक्ष एवं संगोष्ठी के संयोजक डॉ पुनीत बिसारिया ने दी।