अंतर्राष्ट्रीय सृजनात्मक लेखन कार्यशाला का दूसरा दिन

झांसी। बुंदेलखंड विश्वविद्यालय में आयोजित दो दिवसीय अंतर्राष्ट्रीय सृजनात्मक लेखन कार्यशाला के तीसरे सत्र में मंगलवार को आलोचना के विविध पहलुओं पर विचार विमर्श किया गया। इस सत्र की अध्यक्षता करते हुए प्रो त्रिभुवन नाथ शुक्ल ने कहा कि हम शास्त्रार्थ की परंपरा के लोग हैं। हमारा साहित्य दुनिया के साहित्य से उत्कृष्ट है।
उन्होंने कहा कि एक हजार कवि पर एक आलोचक पैदा होगा। चिंताभरे लहजे में उन्होंने कहा कि गिरोहबंद लोग प्राध्यापकीय आलोचना पर अनर्गल टिप्पणी किया करते हैं। उन्होंने सभी को वीर सावरकर की पुस्तक 1857 को पढ़ने की सलाह दी। उन्होंने कहा कि जब कोई विदेशी विद्वानों का उदाहरण देता है तो मुझे अफसोस होता है। दुनिया के किस संस्कृति में श्रीरामचरित मानस, रामायण और शाकुन्तलम जैसा साहित्य है।  
उन्होंने कहा कि भारत ने अग्निधर्मा साहित्य का प्रवर्तन किया है। रचना के तह में निहित सृजनात्मकता ही आलोचना है। उन्होंने कहा कि आलोचक किसी का नहीं होता है। आलोचना में तीन खेमे। एक परंपरावादी, दूसरे प्रगतिवादी और तीसरे तलाशवादी हैं। जिससे प्रतीति हो वह शब्द है। उन्होंने नीति कार भर्तृहर के 18 सूत्रों का भी उल्लेख किया। उन्होंने कहा कि अब पाश्चात्य साहित्य पर भारतीय साहित्य का प्रभाव पड़ रहा है। उन्होंने विद्यार्थियों का आह्वान किया कि वे पुरखों की विशिष्टताओं को दुनियाभर में उजागर करें।
इस सत्र में मारीशस से आए डा उमेश कुमार सिंह ने कार्यशाला के आयोजकों को बधाई दी। उन्होंने उम्मीद जताई कि निकट भविष्य में ही हिंदी यूएनओ की आधिकारिक भाषा बन जाएगी। उन्होंने कहा कि लेखक,पाठक और आलोचक सभी एक दूसरे से गुंथे हुए हैं। उन्होंने कहा कि आलोचना सकारात्मक होनी चाहिए नकारात्मक नहीं। सकारात्मक आलोचना से हम देश में अच्छे लेखक पैदा कर सकते हैं।
लखनऊ से आई लेखिका रजनी गुप्ता ने कहा कि एकेडमिक्स के लोगों ने आलोचना का कबाड़ा किया है। प्राध्यापकीय आलोचना से बाहर निकलें। आंख खोलकर साहित्य पढ़ें। उन्होंने लेखकों से युवाओं और समाज की जटिल समस्याओं से जुड़ने की सलाह दी।
हैदराबाद से आए प्रो आलोक पाण्डेय ने कहा कि वह एक सजग पाठक हैं। उन्होंने आयोजकों को बधाई दी। उन्होंने कहा कि हम प्रतिष्ठित लोगों की समीक्षा देखकर फिल्में देख सकते हैं। उन्होंने इस बात पर चिंता जताई कि आज हिंदी में नामवर आलोचक नहीं हैं। आज आलोचक भ्रष्ट हो गए हैं।
प्रो सिद्धार्थ शंकर ने कहा कि वर्तमान में समाज और संस्कृति की आलोचना होने लगी है। जिस बहस में मैं की अवधारणा होगी वहां संघर्ष होगा। उन्होंने कहा कि विभिन्न युगों में वरिष्ठ साहित्यकारों को भी आलोचना को लेकर गहन चिंतन मनन करना पड़ा है। आज का समय आलोचना के लिए संकटभरा है। आज अधिकांश लोग आत्ममुग्ध दुनिया में जी रहे हैं। लोग आलोचना को स्वीकार नहीं करते हैं।
संस्कृति पर्व पत्रिका के संपादक संजय तिवारी ने कहा कि समाज में जो कुछ घट रहा होता है वो सबके लिए एक जैसा नहीं होता है। विरोध के स्वर आते ही रहने चाहिए। उन्होंने 1770 की एक घटना का जिक्र कर बताया कि कैसे शाकुन्तलम नाटक को देखकर एक अंग्रेज अफसर ने भारत की संस्कृति सीखने का निर्णय लिया। आज की घटनाओं के संदर्भ को समझने की जरूरत है। भारत के पत्रकारिता के साथ ही साथ हिंदी साहित्य की विकास-यात्रा भी चली। स्वाधीनता की पूरी लड़ाई हिंदी साहित्य के माध्यम से लड़ी गई। हमारा चिंतन ही था जिसके बल पर पूर्वजों ने आजादी की लड़ाई लड़ी। आलोचना हर व्यक्ति को ताकतवर बनाती है। आज हर व्यक्ति प्रतिदिन हजारों पंक्तियां लिख रहा है। आज सूचना तकनीकी की बदौलत हिंदी दुनिया के हर हिस्से में पहुंच चुकी है। उन्होंने उदंत मार्तण्ड से लेकर आज तक की पत्रकारिता का उल्लेख किया।
संचालन डा राम पाण्डेय ने किया। उन्होंने कहा कि आलोचना हिंदी साहित्य की उत्कृष्ट सृजनात्मक विधा है।
शुरुआत में संयोजक प्रो मुन्ना तिवारी ने सभी अतिथियों का स्वागत किया।

इस सत्र में डा प्रशांत मिश्रा, डा श्वेता पाण्डेय, डा श्रीहरि त्रिपाठी, डा नवीन चंद्र पटेल, डा सुनीता वर्मा, डा द्युति मालिनी, डा प्रेमलता श्रीवास्तव, डा सुधा दीक्षित, डा पुनीत श्रीवास्तव, डा संतोष पाण्डेय, डा विनम्र सेन सिंह, प्रो गोपेश्वर दत्त, उमेश शुक्ल, डा भुवनेश्वर मस्तानिया, डा श्वेता दीप्ति, डा मंचला झा, प्रो संजीता वर्मा, प्रो डिल्ली राम शर्मा समेत अनेक लोग उपस्थित रहे।