नदियों व जल स्त्रोतों को संरक्षित करने की जरूरत
झांसी। गेहू और चावल के उत्पादन में भारत लगभग नम्बर एक देश है क्योंकि यह दोनों कार्बोहाइड्रेट के सबसे ज्यादा स्रोत हैं। लेकिन आप को बताते हुए दुःख होता हैं कि गेहूं और चावल के उत्पादन में जल की बहुत आवश्यकता होती हैं जिससे प्राकृतिक संसाधनों का बहुत दुरुपयोग होता हैं जबकि इसकी उपज का राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंडी में कीमत बहुत कम होती हैं । इसके अतिरिक्त गेहूं और चावल का उत्पादन हम आवश्यकता से बहुत अधिक करते हैं। यहां तक कि जिन राज्यों में जलवायु गेहूं और चावल के प्राकृतिक उत्पादन के अनुकूल नही होता हैं वहां भी गेहूँ और चावल की खेती की जाने लगी हैं जिससे भूगर्भ जल का अत्यधिक दोहन हो रहा है।

नदियों व जल स्त्रोतों के संरक्षण पर चर्चा करते हुए डॉ राजेश कुमार पांडेय सहायक आचार्य वनस्पति विज्ञान विभाग बुंदेलखंड विस्वविद्यालय ने बताया कि गेहूँ और चावल के विपरीत मोटा अनाज, दलहन और तिलहन के उत्पादन में प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग बहुत ही कम होता हैं और ये सभी प्रोटीन और अमीनो एसिड के भंडार है लेकिन आज भी हम मोटा अनाज, दलहन और तिलहन का भारी मात्रा में आयात करते हैं भारत सरकार पेट्रोल और डीजल के बाद मोटा अनाज, दलहन और तिलहन के आयात पर सबसे ज्यादा धन खर्च करती हैं। बुंदेलखंड जोकि नदियों के जाल के बीच बिछा हैं और यहां की नदियों का जल अत्यंत निर्मल है । अगर बेतवा के किनारे बैठ कर एक सिक्का जल में डाले तो नदी की तलहटी में सिक्का स्पष्ट दिखाई देता है यहां की नदियां जब यमुना नदी में मिलती हैं तो यमुना का जल कई गुना स्वच्छ हो जाता हैं और जब इसी जल के साथ यमुना नदी प्रयागराज के संगम में मिलती है तो गंगा नदी का जल कई गुना स्वच्छ हो जाता है । क्योंकि कानपुर से प्रयागराज के बीच के गंगा नदी का बहुत प्रदूषित होता था। बुंदेलखंड की नदियों के जल को सिंचाई के साधनों से जोड़ कर, मोटा अनाज, दलहन और तिलहन के इस प्राकृतिक भूमि को अत्यंत उपजाऊ जमीन बना कर आम जन के स्वास्थ्य और आर्थिक विकास को एक नए मुकाम पर लाया जा सकता हैं। डॉ राजेश कुमार पांडेय दोहराते हैं कि “जल है तो कल है “।